किसी ने जिंदगी को खा कर मौत से मिलवाया....
फिर भी ना जाने वो क्यों ये ना समझ पाया....
दूसरे को मार कर खुद मौत का खौफ हो गया ...
किसी को मरते हुए देखना उनका शौक हो गया ...
अपने मे ऐसे घुल गया कि सारे गुनाह भूल गया ...
गलती बना के दूसरो कि खुद का पाप धुल गया...
झूठ का ऐसा साया ओढ़ के सच्चाई को छिपाया...
आईना भी उनको देख कर पहचान नहीं पाया....
खुश रहने का दिखावा इंसान इस कदर करता आया ...
मार कर भी जीते जी उनको सब्र नहीं आया....
कभी अपना समझा होता तो तकलीफ दिख जाती...
जिंदगी मौत से भी ज्यादा कठिन नहीं बन जाती....
हर पल मौत कि दुआ करता आया ....
मर कर भी रोज़ रोज़ मरता आया ....
हमपे जिंदगी ने नहीं किया कोई रहम...
मौत तकलीफ देती होगी टूट गया ये वहम...
जीते जी मरा हुआ है खुद को पाया ...
शायद कर्मों मे जिंदगी को मौत से लिखवाया ...
ये बात कोई ही शायद समझ पाया...
क्या दर्द इन शब्दों ने है छलकाया ...
दुआ करते है ना मिले ऐसी जिंदगी का साया...
मरने से ज्यादा जिसको जीने से पछताया...