कभी अपना कभी पराया....
कभी धूप कभी छाया....
कभी जिंदगी कभी मौत का साया....
हर वक़्त इंसान बदलता आया....
चलते चलते थका थका सा.....
हसते हसते रोया रोया सा.....
पाते पाते खोया खोया सा....
जागते हुए भी सोया सोया सा...
रुक रुक कर चल रहा है...
हर पल इंसान बदल रहा है....
जिंदगी से खेलता हुआ...
सब दुःखो को झेलता हुआ...
जबरदस्ती समय को धकेलता हुआ....
संभल संभल कर गिरता हुए....
उठ उठ कर यूँ चल रहा है....
समय के साथ इंसान बदल रहा है....
कुछ खोज रहा है...
लूट मौज रहा है...
सब कुछ लग बोझ रहा है...
हाथों में ले कर के सपने.....
आगे आगे निकल रहा है...
इंसान रंग बदल रहा है....
मतलब से बोले दुनिया में...
मतलब से बनाता रिश्ता....
मतलब से साथ होकर...
बिना मतलब का बन कर दिखाता....
खुद को धोखे में रख कर.....
इंसान ना जाने कितने रंग बदल कर
गिरगिट को भी हराता है....
इसलिये इंसान आज के युग में....
जानवर से बड़ा बन जाता है...
अपने रंग को बदल बदल कर....
नये नये रंग सामने लाता है....
और जीत के दुनिया में आगे चल कर....
खुद को हारा हुआ पाता है....
सब कुछ मिलने कि चाहत में....
कुछ भी पास नहीं रह जाता है...
पता है सब कुछ फिर भी ना जाने...
क्यों असली रंग नहीं पहचान पाता है...
बार बार एक नया रंग जरूरत से बदल जाता है.....
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