ये दुनिया कि खुदगर्ज़ी....
कर्मों की बेदर्दी ......
ना समझें किसी के दिल को....
बस करते है मनमर्जी....
जीते जी है मरना.....
मर मर कर के जीना.....
रोते रोते है हँसना...
हँस हँस कर है रोना....
खोते खोते पाना....
पाकर भी खोना.....
सब कुछ है यहाँ फर्जी... ये दुनिया की खुदगर्ज़ी...
जिंदगी की कहानी...
हर आँख में पानी...
दुनियां का विनाश...
करीब आता वक़्त खास...
हर तरफ है लाश...
करों किसी पे भी विश्वास...
टूटेगा तो होगा अहसास...
दुनियां मरी नहीं लेकिन ....
जीते जी हो गया सत्यानाश...
देख के भी दिखती नहीं...
खरीदने से भी मिलती नहीं...
हो गई है खुशियाँ कागजी... ये दुनियां की खुदगर्ज़ी..
भूख गई प्यास गई...
जीते जी सर्वनाश हुई...
पीछे पड़ पड़ के दुनियां में...
ख़त्म हुई तलाश नई...
क़ामयाबी भी झूठी है...
सारी दुनियां रूठी है...
अपेक्षाएं नहीं पूरी हुई...
सबकी किस्मत फूटी है...
ना ईमान रहा ना इज्जत...
सब अपनों ने ही लूटी है...
हर तरफ इन लुटेरों की...
हिसाब किताब की है पर्ची ... ये दुनियां की खुदगर्ज़ी
सब खटक रहे और भटक रहे...
अधूरे रास्तो पे लटक रहे...
दिखावे को दुनियां में बन कर पागल...
सटक रहे और मटक रहे...
देख तमाशा दुनियां का...
सब चटक रहे सब अटक रहे...
ना कोई मेल ना कोई जोल...
हर तरफ मतलब के है झोल...
हर वक़्त का खेल निराला...
निभा रहे है डबल रोल...
चलती है जैसे गोली...
मार रहे अपनों को ये बोल...
कोई होता नहीं यहाँ अपना बस...
दिखाने की है हमदर्दी... ये दुनियां की खुदगर्ज़ी...
No comments:
Post a Comment